
जब मेरी हड्डियां अंदर से कड़कती हैं ,
तो समझ आता है कि मैं हूँ तो एक कंकाल ही,
चाहे हो मेरी मांसपेशियों में कितनी भी चर्बी।
लहू बनके जो लाल सा पानी मुझमे बहता है,
वह भी सुख जाएगा।
इतना सोच के मेरा ये छोटा सा दिमाग क्या पायेगा?
कुछ इन पंक्तियों को पढ़ एक like मार देंगे।
कौनसा वह एक वाह वाही से मुझे पार उतार देंगे?
आज जो अड़े हुए हैं मुद्दों कि ज़िद्दों कि कर रहे हैं रखवाली,
कोई पूछे उनसे कि उन्होंने कौनसी जन्नत पाली ?
क्यों नहीं समझते कि कंकालों के देश में क्या लेजा पायेंगे?
अपनी ऐंठ , अपनी अकड़ , सब यहीं छोड़ जायेंगे