कैसा मज़ाक करता है तू खुदाया,
की मेरे ही नियम मुझ पर हॅसते हैं,
टूट जाते हैं बांधे जो बंधन,
जब आज़ादी की उम्मीद में मन के पंछी तरसते हैं…
उन्मुक्त गगन…कब खुलेगा तू आसमान ..
कब मुझे भी आवाज़ देगा ये जहाँ…
झूठा ख्याल चाहे कितना भी चमके, झूठा ही होता है…
हर चमकती चीज़ को हीरा मानने वाला , आखिर में रोता है ..
पर शुक्र है खुदाया आँख बंद होने से पहले खुल गयी…
की आखों में पड़ी चमकती रेत धुल गयी…
साफ़ है मंज़िल , तन्हाई से क्या वास्ता ..
आये कोई न आये कोई…ढूंढ लुंगी अपना रास्ता …
