दोस्त या दुश्मन?


In history, we have never needed enemies…our own people were enough to let us down. A poem..

कुछ इस तरह के लतीफ़े भी लिखे हैं ताऱीख के पन्नों में ,
की अपनों ने अपनों को ही दिया धोका ..
बाहरी ताक़तें न आने पाती
अगर सब अपनों ने मिल कर होता रोका…
छा गया इतना उन पर उनका झूठा गुरुर और अभिमान
कि अपनी मैं के पीछे दे दिया अपनों का बलिदान …
कितने फिरंगियों ने इस बात का फायदा उठाया ….
पूरी  क़ौम और देश को कमज़ोर बनाया
सदियाँ बीत गयी पर आजभी वहीँ मंज़र है…
की अपना ही अपनों की पीठ पर घोंपता खंजर है ..
इस  देस को दुश्मनों की क्या ज़रूरत जब खुद के लोग इतने काबिल हो…
की हर चेहरे के पीछे छुपा एक कातिल हो …

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